आशीष 14 साल का था और मनीष 10 का।
शहर से आए उन लड़कों को वो गाँव बड़ा अजीब और आकर्षक लगा।
लोग अजीब लगे, और आकर्षक उस गांव की जगहें।
लोग इसलिए अजीब लगे थे क्यूंकी जब देखो, जहां देखो, कोई ना कोई अजीब नियम क़ायदा बता देते थे।
तालाब के पास मत जाना।
जंगलों में दोपहरी के बाद मत जाना।
रात को खेतों में अकेले मत घूमना।
हर जगह, हर समय कोई ना कोई क़ायदा-क़ानून। और वजह पूछो तो बस एक ही जवाब, "जितना बोल रहे हैं उतना करो। बस।"
अब ये अच्छी बात है या बुरी, ये मैं नहीं जानता पर लड़के कहने से मानते नहीं हैं।
घर से दोपहर के निकले दोनों भाई, खेत खेत, नहर नहर घूमते कब जंगल पहुँच गए उन्हें खुद नहीं पता चला। पर जब सूरज क्षितिज पर आ टिका, तब जाकर उन्हें एहसास हुआ की वो काफ़ी दूर निकल आए हैं।
"आशीष, घर चल ना, मम्मी डाँटेंगी।"
"अरे चल रहे हैं ना, बस वहाँ तक और देखते हैं।" आशीष एक टीले की तरफ़ इशारा करते हुए बोला।
"मैं नहीं जा रहा। तू हर बार ऐसे ही करता है। और फिर मम्मी से मेरी डाँट पड़वाता है।" मनीष ने ग़ुस्से में एक कंकड़ किसी झाड़ी में फेंक मारा।
"अच्छा डरपोक कहीं के," आशीष अपने हाथ में पकड़ी डंडी को पेड़ पर मारता हुआ बोला, "सूसू करके आता हूं, फिर घर चलते हैं।"
ये कह कर आशीष ने अपनी डंडी फेंकी और ऊँची ऊँची झाड़ियों के पीछे चलकर ग़ायब हो गया। अकेला खड़ा मनीष, इधर उधर देखता रहा। सूरज अब क्षितिज से नीचे ढलने लगा था। उसकी पीली-नारंगी किरने किसी भी वक्त गुलाबी होने वाली थीं।
"जल्दी आ ना।" मनीष ने आशीष को एक आवाज़ दी, कि तभी उसके सर के पीछे कुछ आकर लगा। मनीष ने देखा, ज़मीन पर एक कंकड़ पड़ा था। उसने उसे उठाया तो सोच में पड़ गया।
ये वही कंकड़ था जो उसने थोड़ी देर पहले झाड़ियों में फेंका था।
डर ने उसके पेट में एक अजीब सा कसाव पैदा किया।
काँपती सी एक आवाज़ में उसने पूछा, "आशीष?"
लेकिन आशीष जिस दिशा की झाड़ियों में घुसा था, वो कंकड़ उस से एक अलग ही दिशा में से आया था।
"कौन है?" वो फिर बोला। इस बार थोड़ा और धीमे से।
तभी उसके पीछे की झाड़ियों में एक हरकत हुई।
मनीष तेज़ी से पलटा - झाड़ियाँ फिर हिलीं, "कौन है?"
और इस बार वो 3 कदम पीछे हो गया, और एक बार ज़ोर से चीखा, "आशीष।"
मनीष ने महसूस किया कि उसका सूसू लगभग निकलने वाला था।
तभी झाड़ियाँ हिलीं, और उनमें से निकला - आशीष।
आशीष झाड़ी से बाहर आकर मनीष के सामने खींसें निपोरते हुए खड़ा हो गया।
मनीष लगभग रो पड़ा, "तू ऐसे मत किया कर। मैं मम्मी को बोल दूँगा।"
आशीष खड़ा खड़ा अपने छोटे भाई को डरते देख मुस्कुरा रहा था। उसने मुंह बनाया और एक अजीब से अन्दाज़ में बोला, "म म्मी को बो ल दूँ गा।"
"मुझे नहीं रहना यहां, घर चल।" मनीष अपने आंसू पोंछता हुआ बोला।
लेकिन आशीष अपनी जगह से हिला भी नहीं। बल्कि वो किसी मूर्ति की तरह खड़ा हुआ मनीष को घूरता रहा।
उसकी वो मुस्कुराहट अब खिंचती जा रही थी।
"घ र च ल।"
मनीष ने अब महसूस किया, उसका बड़ा भाई कुछ अजीब सी हरकत कर रहा था।
"तू ऐसे क्यूं बात कर रहा है?"
"बा त क र र हा है" आशीष फिर से मुस्कुराते हुए बोला।
मनीष को लगा उसका सूसू निकालने वाला है, की तभी उसके पीछे की झाड़ी में हरकत हुई। वो बच्चा किसी डरे हुए मेमने की तरह उछल कर पलटा।
झाड़ियाँ हिलीं, और उनमें से निकला - आशीष।
मनीष अब सकते में था। उसके दो तरफ़, दो आशीष खड़े थे। एक मुस्कुरा रहा था और दूसरा उसे ऐसे घूर रहा था मानो उसे खा जाएगा।
"मनीष," दूसरा आशीष बोला, "ये कौन है?"
"कौ न है" पहला आशीष उसी मुस्कुराहट के साथ बोला।
"मनीष चल यहाँ से।" दूसरा आशीष बोला।
और तब, पहले आशीष ने दूसरे आशीष को एक बार ऊपर से नीचे तक घूरा। उसने हूबहू उसके हाव भाव इख़्तियार किए और बोला,
"म नी ष च ल यहाँ से।"
उसका बोलना अब एकदम सामान्य हो चुका था।
दूसरी ओर, मनीष को समझ नहीं आ रहा था कि वो करे क्या।
"मनीष," एक आशीष चीखा, "मेरे पास आ।"
"मनीष," दूसरा आशीष चीखा, "मेरा पास आ।"
दूसरा आशीष अब आगे आया, "दूर हट मेरे भाई से।"
पहला आशीष भी उसके सामने आ दटा, "दूर हट मेरे भाई से।"
मनीष ने देखा कैसे एक आशीष दूसरे पर झपटा। दोनों आपस में गुथे और ज़मीन पर गिर पड़े। एक दूसरे से लड़ते भिड़ते, दोनों ज़मीन पर लोटने लगे। उनमें से एक ने एक ज़ोर की लात दूसरे में मारी और उछल कर खड़ा हो गया।
"मनीष भाग!" वो बोला।
पर मनीष अब दोनों आशीष में से कौन कौन है, नहीं बता पा रहा था। और इतने में दूसरा आशीष खड़ा हुआ, "मनीष भाग।"
अब मनीष की हालत किसी पिल्ले जैसी हो गयी थी, जिसे दो बच्चे हाथ में बिस्किट लिए अपनी अपनी तरफ़ बुला रहे हों।
"मनीष इसकी मत सुन।"
"मनीष इसकी मत सुन।"
"मनीष चल ना भाई।"
"मनीष चल ना भाई।"
मनीष का बांध टूट गया, और उसका उसकी पैंट, मोज़े, जूते और उसके नीचे की ज़मीन गीली होती चली गयी।
और तब, उनमें से एक आशीष आगे आया। मनीष देख पा रहा था कि कैसे उसके चेहरे पर ऐसे भाव हैं जैसे वो उसे खा ही जाएगा।
उस आशीष ने मनीष का हाथ पकड़ा, और उसे अपने साथ लेकर झाड़ियों की तरफ़ भागा।
मनीष ने पलट कर देखा, वो आशीष अब उनके पीछे पीछे भागने लगा था।
"नहीं।" मनीष ने अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश करते हुए कहा।
"नहीं" - "नहीं" दोनों आशीष बारी बारी से बोले।
मनीष एक कटी पतंग की तरह, उस आशीष के साथ बहता चला गया, जो उसे लेकर झाड़ियों में ग़ायब हो गया।
बाहर रह गया आशीष चीखता रहा, "मनीष मनीष मनीष" लेकिन उसका भाई और दूसरा आशीष ना ही दिखायी दिए और ना ही सुनायी।
आशीष की आँखों से आंसू बहने लगे।
उसका छोटा भाई पता नहीं कहाँ चला गया।
रोते रोते, थका हारा आशीष ज़मीन पर जा गिरा। उसके आंसू गिर कर जंगल की मिट्टी को जहां तहाँ गीला कर देते। मनीष को आवाज़ लगाते लगाते उसका गला सूख चुका था।
ना जाने कितनी देर तक वो वहाँ पड़ा रहा, कि अचानक उसे अपने पीछे से एक आवाज़ आयी। वो धीरे से पलटा और उसने देखा -
झाड़ी में हरकत हुई, और बाहर निकला - मनीष।
"मनीष," आशीष के गले में फिर से एक ताक़त आ गयी। अपने आंसू पोंछते हुए वो खड़ा होकर बोला, "मैं ही तेरा असली भाई हूँ।"
मनीष के चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कुराहट आयी, और वो बोला -
"अ स ली भा ई हूँ।"
(समाप्त)